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ग़ज़ल
इस भरे शहर में 'नश्तर' कोई ऐसा भी कहाँ
रोज़ जो शाम में हम जैसे फ़ुज़ूलों से मिले
अब्दुर्रहीम नश्तर
ग़ज़ल
करते हैं जिस पे ता'न कोई जुर्म तो नहीं
शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ उल्फ़त-ए-नाकाम ही तो है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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नज़्म
दर्द आएगा दबे पाँव
हो न हो अपने क़बीले का भी कोई लश्कर
मुंतज़िर होगा अंधेरे की फ़सीलों के उधर