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नज़्म
एक आरज़ू
मेहंदी लगाए सूरज जब शाम की दुल्हन को
सुर्ख़ी लिए सुनहरी हर फूल की क़बा हो
अल्लामा इक़बाल
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नज़्म
चंद रोज़ और मिरी जान
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
दो इश्क़
उस राह पे फैलेगी शफ़क़ तेरी क़बा की
फिर देखे हैं वो हिज्र के तपते हुए दिन भी
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
हम पे ही ख़त्म नहीं मस्लक-ए-शोरीदा-सरी
चाक-ए-दिल और भी हैं चाक-ए-क़बा और भी हैं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
इबलीस की मजलिस-ए-शूरा
वो यहूदी फ़ित्ना-गर वो रूह-ए-मज़दक का बुरूज़
हर क़बा होने को है इस के जुनूँ से तार तार