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ग़ज़ल
बशीर बद्र
ग़ज़ल
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
अल्लामा इक़बाल
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विषय
लिबास
लिबास
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क़ितआ
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
लिबास-ए-मुफ़्लिसी में कितनी बे-क़ीमत नज़र आती
जौन एलिया
नज़्म
दोस्ती का हाथ
फ़क़त तुम्हीं को नहीं रंज-ए-चाक-दामानी
कि सच कहें तो दरीदा-लिबास हम भी हैं
अहमद फ़राज़
नज़्म
सफ़र के वक़्त
है तुम को तैश है बालिशतियों की ये दुनिया
तो फिर क़रीने से तुम उन को बे-लिबास करो
जौन एलिया
नज़्म
इबलीस की मजलिस-ए-शूरा
हम ने ख़ुद शाही को पहनाया है जमहूरी लिबास
जब ज़रा आदम हुआ है ख़ुद-शनास-ओ-ख़ुद-निगर
अल्लामा इक़बाल
मर्सिया
ज़ोहरा का लिबास अपने लिए छांट रही हूँ
अब्बास का मलबूस-ए-अज़ा बांट रही हूँ