aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "مرحبا"
आ गई आप को मसीहाईमरने वालों को मर्हबा कहिए
वो आए मगर आए किस वक़्त 'हसरत'कि हम चल बसे मरहबा कहते कहते
पढ़ के उन को हर कोईकह रहा है मर्हबा
मर्हबा मय-कशों का मुक़द्दर अब तो पीना इबादत है 'अनवर'आज रिंदों को पीने की दावत वाइ'ज़-ए-मोहतरम दे गए हैं
प्रोफ़ैसर ग़ैज़: मैंने तो कोई नई चीज़ नहीं लिखी। हीराजी: तो फिर वही नज़्म सुना दीजिए जो पिछले दिनों रेडियो वालों ने आपसे लिखवाई थी।...
हिज्र मुहब्बत के सफ़र का वो मोड़ है, जहाँ आशिक़ को एक दर्द एक अथाह समंदर की तरह लगता है | शायर इस दर्द को और ज़ियादः महसूस करते हैं और जब ये दर्द हद से ज़ियादा बढ़ जाता है, तो वह अपनी तख्लीक़ के ज़रिए इसे समेटने की कोशिश करता है | यहाँ दी जाने वाली पाँच नज़्में उसी दर्द की परछाईं है |
मजबूरी ज़िंदगी में तसलसुल के साथ पेश आने वाली एक सूरत-ए-हाल है जिस में इंसान की जो थोड़ी बहोत ख़ुद-मुख़्तारियत है वो भी ख़त्म हो जाती और इंसान पूरी तरह से मजबूर हो जाता है और यहीं से वो शायरी पैदा होती है जिस में बाज़ मर्तबा एहतिजाज भी होता है और बाज़ मर्तबा हालात के मुक़ाबले में सिपर अंदाज़ होने की कैफ़ियत भी। हम इस तरह के शेरों का एक छोटा सा इंतिख़ाब पेश कर रहे हैं।
बुढ़ापा उम्र का वह हिस्सा है जब पुराने पत्ते नई कोंपलों को रास्ता देने की तैयारी शुरू कर देते हैं। माज़ी या अतीत के बहुत सारे पल अच्छे बुरे तजुर्बों की धूप-छाँव की तरह याद आते हैं और शायरी ऐसे ही जज़्बों की तर्जुमानी में करामात दिखाती है। उम्र के आख़िरी लम्हों में जिस्म और उस से जुड़ी दुनिया में सूरज के ढलने जैसा समाँ होता है जिसे शायरों ने अपने-अपने नज़रिये से देखा और महसूस किया है। पेश है एक झलक बुढ़ापा शायरी कीः
मरहलाمَرحَلا
मंज़िल; पड़ाव; ठिकाना
मर्तबाمَرتَبَہ
दर्जा, श्रेणी, पद, ओहदा
मर्तबाمَرتَبا
मरहबीمَرحَبی
Marhaba! welcome! hail! God bless you! bravo!
Marhaba Al-Haj
मोहम्मद ज़ाकिर अली ख़ान
Nama-e-Safa-o-Nuskha-e-Marhaba
मियाँ अाशिक़ अली शाह
मुंशी नवल किशोर के प्रकाशन
Riyaz-e-Marhaba
Marhaba frans-o-persia
मोहम्मद मिसबाहुद्दीन हक़्क़ी
Marhaba Al-Haaj
उर्दू मास मीड़िया
फ़ज़लुल हक़
इंतिख़ाब / संकलन
Gulzar Nama
शाहिदा तबस्सुम
लेख
Azadi Ke Baad Maghribi Bangal Ka Urdu Adab
नईम अनीस
Tanqeed Ki Jamaliyat
अतीक़ुल्लाह
सौंदर्यशास्त्र
Classiciyat Aur Romanviyat
अली जावेद
Suhail Azeemabadi Aur Unke Afsane
वहाब अशरफ़ी
Mutala-e-Sir Syed Ahmad Khan
प्रो. अब्दुल हक़
हाली फ़न और शख़्सियत
शमीम फ़ारूक़ी
इक़बालियात के सौ साल
मोहम्मद सुहैल उमर
Mushtaq Ahmad Yusufi
मज़हर अहमद
हास्य-व्यंग इतिहास और आलोचना
بخشا علم رسول خدا نے علی کو تبمرحب کو قتل کرکے بڑھا جب وہ شیر رب
مربع نشیں تھی وہ بدر منیروہاں اس کو لائی وہ دخت وزیر
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजेकटे ज़बान तो ख़ंजर को मर्हबा कहिए
जो आऊँ सामने उन के तो मर्हबा न कहेंजो जाऊँ वाँ से कहीं को तो ख़ैर-बाद नहीं
मर्हबा ऐ सुरूर-ए-ख़ास-ख़वासहब्बज़ा ऐ नशात-ए-आम-अवाम
“बन की सुंदरी” की शूटिंग चल रही थी। नयाज़ मोहम्मद विलेन की जंगली बिल्लियों को जो उसने ख़ुदा मालूम स्टूडियो के लोगों पर क्या असर पैदा करने के लिए पाल रखी थीं। दो पैसे का दूध पिला कर मैं हर रोज़ उस “बन की सुंदरी” के लिए एक ग़ैर मानूस...
हक़ से पाई वो शान-ए-करीमी मर्हबा दोनों आलम के वालीउस की क़िस्मत का चमका सितारा जिस पे नज़र-ए-करम तुम ने डाली
दिल-फ़िगार ने पूरब से पच्छिम तक और उत्तर से दक्खिन तक कितने ही दयारों की ख़ाक छानी। कभी बर्फ़िस्तानी चोटियों पर सोया। कभी हौलनाक वादियों में भटकता फिरा। मगर जिस चीज़ की धुन थी, वो न मिली। यहाँ तक कि उसका जिस्म एक तूदा-ए-उस्तख़्वाँ हो गया। एक रोज़ वो शाम...
ہمارا منہ ہے کہ دیں اس کے حسن صبر کی دادمگر نبی و علی مرحبا کہیں اس کو
शरमा गए लजा गए दामन छुड़ा गएऐ इश्क़ मर्हबा वो यहाँ तक तो आ गए
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