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ग़ज़ल
वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ ओ लब की बख़िया-गरी
फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तुलू-ए-इस्लाम
अता मोमिन को फिर दरगाह-ए-हक़ से होने वाला है
शिकोह-ए-तुर्कमानी ज़ेहन हिन्दी नुत्क़ आराबी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मिर्ज़ा 'ग़ालिब'
नुत्क़ को सौ नाज़ हैं तेरे लब-ए-एजाज़ पर
महव-ए-हैरत है सुरय्या रिफ़अत-ए-परवाज़ पर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
नज़्र-ए-दिल
में क़सम खाता हूँ अपने नुत्क़ के ए'जाज़ की
तुम को बज़्म-ए-माह-ओ-अंजुम में बिठा सकता हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
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नज़्म
अपनी मल्का-ए-सुख़न से
नग़्मे पले हैं दौलत-ए-गुफ़्तार से तिरी
पाया है नुत्क़ चश्म-ए-सुख़न-बार से तिरी