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ग़ज़ल
मुर्दे जी उठते हैं जब नाम तिरा सुनते हैं
हम से पूछे कोई एजाज़-ए-मसीहा क्या है
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
ग़ज़ल
आरज़ू जी उठी फिर प्यार जो उस बुत ने किया
फिर लब-ए-यार में एजाज़-ए-मसीहा है वही
ग़ुलाम भीक नैरंग
नज़्म
'ग़ालिब'
बे-हक़ीक़त लगा एजाज़-ए-मसीहा तुझ को
जब कहा तू ने कि हर फ़र्द है ना-ख़्वांदा-वर्क़
शुजा फ़र्रुख़ी
ग़ज़ल
उस लब-ए-जाँ-बख़्श की मोजिज़-नुमाई का यक़ीं
हो गया 'तालिब' को एजाज़-ए-मसीहा देख कर
मुंशी ठाकुर प्रसाद तालिब
ग़ज़ल
तुझ लब के तबस्सुम में है एजाज़-ए-मसीहा
ऐ जान-ए-'सिराज' इस दिल-ए-बे-जाँ कूँ जला देख