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ग़ज़ल
मुरत्तब कर लिया है कुल्लियात-ए-ज़ख़्म अगर अपना
तो फिर 'एहसास-जी' इस की इशाअ'त क्यूँ नहीं करते
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
न हो जब ठोकरें खाने पे भी एहसास-ए-बेदारी
न टूटें दिल पे क्यों नाकामियाँ बर्क़-ए-तपाँ बन कर
जुर्म मुहम्मदाबादी
ग़ज़ल
उसी को सोचना पड़ती हैं तदबीरें रिहाई की
जो ताइर जुर्म-ए-आज़ादी में ज़ेर-ए-दाम होता है
जुर्म मुहम्मदाबादी
ग़ज़ल
गिला बे-सूद है ऐ 'जुर्म' बे-मेहरी-ए-आलम का
बुरा कुछ लोग कहते हैं तो कुछ अच्छा समझते हैं
जुर्म मुहम्मदाबादी
ग़ज़ल
न पहुँच सका जहाँ तक कभी पा-ए-किब्र-ओ-दानिश
वहीं 'जुर्म' ले गई है मुझे मेरी ख़ाकसारी
जुर्म मुहम्मदाबादी
ग़ज़ल
ऐ 'जुर्म' दर्द-ओ-इश्क़ का मिलना नहीं है खेल
जब तक किसी बशर को ये ने'मत ख़ुदा न दे