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नज़्म
शिकवा
शान आँखों में न जचती थी जहाँ-दारों की
कलमा पढ़ते थे हमीं छाँव में तलवारों की
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
आदमी-नामा
कलमा भी पढ़ते जाते हैं रोते हैं ज़ार-ज़ार
सब आदमी ही करते हैं मुर्दे के कारोबार
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
मुफ़्लिसी
जो अहल-ए-फ़ज़्ल आलिम ओ फ़ाज़िल कहाते हैं
मुफ़्लिस हुए तो कलमा तलक भूल जाते हैं
नज़ीर अकबराबादी
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