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ग़ज़ल
मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है
दाम-ए-ख़ाली क़फ़स-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार के पास
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
मैं भी ता-सुब्ह रखी बुलबुल-ए-गुलज़ार से बहस
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
क़ैदी-ए-ज़ुल्फ़ की क़िस्मत में है रुख़्सार की सैर
शुक्र है बाग़ भी है मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार के पास
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
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नज़्म
हुजूम में तन्हाई
रूह घुटती है जो इस तंग क़फ़स में मेरी
सिफ़त-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार फड़कता हूँ मैं
जलील क़िदवई
ग़ज़ल
कैसे टेढ़ा न चले मार बड़ी मुश्किल है
सीधी हो ज़ुल्फ़-ए-गिरह-दार बड़ी मुश्किल है
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
मुर्ग़-ए-सहर अदू न मोअज़्ज़िन की कुछ ख़ता
'परवीं' शब-ए-विसाल में सब है फ़ुतूर-ए-सुब्ह
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
उम्र सय्याद की गुज़री इसी जासूसी में
गुल को नामा न करे मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार-ए-रवाँ