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ग़ज़ल
एक मैं कोताह-क़द था उस की महफ़िल में 'मुशीर'
इस लिए मेरे 'अलावा हर किसी का सर गया
मुशीर झंझान्वी
नज़्म
रूह लबों तक आ कर सोचे
दश्त-ओ-दमन में कोह कमर में बिखरे हुए हैं फूल ही फूल
रु-ए-निगार-ए-गीती पर हैं सब्त मिरे बोसों के निशाँ