aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "गरजा"
मुंशी गिरजा सहाय
लेखक
गिरजा कुमार सिंहा
संपादक
निज़ामी ऑफ़ गांजा
पहले तो मैं चीख़ के रोया और फिर हँसने लगाबादल गरजा बिजली चमकी तुम याद आए
सलीम ने रुक के कहा, “मुझे... मुझे एक लड़की से मुहब्बत है।” उसका बाप गरजा, “किस लड़की से?”...
ये परी-चेहरा लोग कैसे हैंग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है
क़ैदी ने मुलतजियाना लहजे में कहा, “दारोगा जी! लालटेन पकड़ता हूँ, मैं नहीं चाहता कि इस मासूम और बेगुनाह को एक क़ातिल के हाथ छू जाएं।” वार्डन ये सुनकर गरजा, “बेगुनाह के बच्चे... जासूस को मासूम कहता है।”...
मेहरुन्निसा को डोली में बिठाया गया तो इकन्नियों और छोहारों की एक लहर सी उस पर से निछावर हो गई। गाँव के बच्चे उन पर झपटे। मौलवी के बच्चे जो डयुढ़ी में माँ-बाप की देखा-देखी रो रहे थे, एक दम यूँ उछले जैसे उनके क़दमों तले लचकदार कमानियाँ भर आई...
दो इन्सानों का बे-ग़रज़ लगाव एक अज़ीम रिश्ते की बुनियाद होता है जिसे दोस्ती कहते हैं। दोस्त का वक़्त पर काम आना, उसे अपना राज़दार बनाना और उसकी अच्छाइयों में भरोसा रखना वह ख़ूबियाँ हैं जिन्हें शायरों ने खुले मन से सराहा और अपनी शायरी का मौज़ू बनाया है। लेकिन कभी-कभी उसकी दग़ाबाज़ियाँ और दिल तोड़ने वाली हरकतें भी शायरी का विषय बनी है। दोस्ती शायरी के ये नमूने तो ऐसी ही कहानी सुनाते है।
इंतिज़ार ख़ास अर्थों में दर्दनाक होता है । इसलिए इस को तकलीफ़-देह कैफ़ियत का नाम दिया गया है । जीवन के आम तजरबात से अलग इंतिज़ार उर्दू शाइरी के आशिक़ का मुक़द्दर है । आशिक़ जहाँ अपने महबूब के इंतिज़ार में दोहरा हुआ जाता है वहीं उस का महबूब संग-दिल ज़ालिम, ख़ुद-ग़रज़, बे-वफ़ा, वादा-ख़िलाफ़ और धोके-बाज़ होता है । इश्क़ और प्रेम के इस तय-शुदा परिदृश्य ने उर्दू शाइरी में नए-नए रूपकों का इज़ाफ़ा किया है और इंतिज़ार के दुख को अनन्त-दुख में ढाल दिया है । यहाँ प्रस्तुत संकलन को पढ़िए और इंतिज़ार की अलग-अलग कैफ़ियतों को महसूस कीजिए ।
गरजाگرجا
roar, thundered
दूकान-ए-शीशा गराँ
शमीम हनफ़ी
आलोचना
एक गिरजा एक ख़ंदक़
कृष्ण चंदर
अफ़साना
हमारी ग़िज़ा
सय्यद मुबारिज़ुद्दीन रिफ़अत
बाल-साहित्य
विटामिन्स
डॉ. मोहम्मद अशरफ़ुल हक़
अन्य
एक गिरजा, एक ख़न्दक
क़िस्सा मौसम-ए-गरमा का ख़्वाब
मोहम्मद एहसानुल्लाह
Margaret
नॉवेल / उपन्यास
Probsthains Oriental Series (Nizami: The Haft Paikar)
अल-ग़र्ज़
मुजतबा हुसैन
हम ने बरसात के मौसम में जो चाही तौबाअब्र इस ज़ोर से गरजा कि इलाही तौबा
मैं तिरी याद के सावन को कहाँ बरसाऊँअब की रुत में कोई बादल भी न गरजा मुझ में
वापस आ कर मौला ने मीरासी से चिलम लेकर कश लगाया तो सुल्फ़ा उभर कर बिखर गया। एक चिंगारी मौला के हाथ पर गिरी और एक लम्हा तक वहीं चमकती रही। मीरासी ने चिंगारी को झाड़ना चाहा तो मौला ने उसके हाथ पर इस ज़ोर से हाथ मारा कि मीरासी...
गरजा है बड़े ज़ोर से बादल ज़रा देखोबिजली से गिरी जिस पे कहीं मेरा न घर हो
तपते सहराओं पे गरजा सर-ए-दरिया बरसाथी तलब किस को मगर अब्र कहाँ जा बरसा
ताहिरा क़ुरआन उठाने के लिए तैयार थी कि अता का उस ऐक्ट्रस से नाजायज़ तअ’ल्लुक़ है। जब वो साफ़ इन्कारी हुआ तो ताहिरा ने बड़ी तेज़ी के साथ कहा, “कितने पारसा बनते हो... ये आया जो खड़ी है, क्या तुमने उसे चूमने की कोशिश नहीं की थी... वो तो मैं...
अभी कल की बात है मैं पाख़ाने गया तो इसने बाहर से कुंडी चढ़ा दी। मैं बहुत गर्जा, बेशुमार गालियां दीं मगर उसने कहा, अठन्नी देने का वा’दा करते हो तो दरवाज़ा खुलेगा और देखो अगर वा’दा कर के फिर गए तो दूसरी मर्तबा कुंडी में ताला भी होगा। नाचार...
वो देखो सागर गरजा तूफ़ान उठा नय्या डूबीऔर तमाशा देख रहे हैं बैठे साहिल साहिल लोग
इक उम्र से रोया हूँ न तड़पा हूँ में 'शहज़ाद'एहसास का बादल कभी बरसा है न गरजा
बादल गरजा बिजली चमकी रोई शबनम फूल हँसेमुर्ग़-ए-सहर को हिज्र की शब के अफ़्साने दोहराने दो
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