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नज़्म
तुलू-ए-इश्तिराकियत
शाही दरबारों के दर से फ़ौजी पहरे ख़त्म हुए हैं
ज़ाती जागीरों के हक़ और मोहमल दा'वे ख़त्म हुए हैं
साहिर लुधियानवी
हिंदी ग़ज़ल
तुम इन्हें बाँट के ख़ुद ख़त्म करोगे ख़ुद को
ज़ख़्म भी बटते हैं बटती हुई जागीरों में
हरजीत सिंह फ़ानी
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ग़ज़ल
इक गोशा तो ऐसा भी हो जिस का कोई नाम न हो
सारी धरती बटी हुई है मुल्कों में जागीरों में
इंद्र मोहन मेहता कैफ़
ग़ज़ल
मुझ दरवेश को मतलब क्या है मंसब से जागीरों से
जिस ने शब-भर ख़्वाब बुने हों वो उलझे ता'बीरों से
कामरान आदिल
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
अक़्ल है तेरी सिपर इश्क़ है शमशीर तिरी
मिरे दरवेश ख़िलाफ़त है जहाँगीर तिरी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मुझ से पहले
एक बे-नाम सी उम्मीद पे अब भी शायद
अपने ख़्वाबों के जज़ीरों को सजा रक्खा हो
अहमद फ़राज़
नज़्म
हम जो तारीक राहों में मारे गए
कर चले जिन की ख़ातिर जहाँगीर हम
जाँ गँवा कर तिरी दिलबरी का भरम