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ग़ज़ल
ख़ीरा-सरान-ए-शौक़ का कोई नहीं है जुम्बा-दार
शहर में इस गिरोह ने किस को ख़फ़ा नहीं किया
जौन एलिया
ग़ज़ल
सिलसिला जुम्बाँ इक तन्हा से रूह किसी तन्हा की थी
एक आवाज़ अभी आई थी वो आवाज़ हवा की थी
जौन एलिया
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नज़्म
क्या करूँ
फिर दिल में दर्द सिलसिला-ए-जुम्बा है क्या करूँ
फिर अश्क गर्म-ए-दावत-ए-मिज़्गाँ है क्या करूँ
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
चार ज़ंजीर-ए-अनासिर पे है ज़िंदाँ मौक़ूफ़
वहशत-ए-इश्क़ ज़रा सिलसिला-ए-जुम्बाँ होना
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
लोटता था इस में बद-ख़़ूई से मैं मानिंद-ए-अश्क
शोख़ी-ए-तिफ़्लान से जुम्बाँ मिरा गहवारा था
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
हर तरफ़ दहर में था ज़ुल्फ़ की ज़ंजीर का गुल
मगर ऐ जोश-ए-जुनूँ सिलसिला-जुम्बाँ हम थे
तअशशुक़ लखनवी
नज़्म
हर साल इन सुब्हों
इन जुम्बा जहतों में साकिन
तब इतने में सात करोड़ कुर्रे फिर पातालों से उभर कर और खिड़की के सामने आ कर
मजीद अमजद
ग़ज़ल
क्यूँ उठने लगे आज क़दम जानिब-ए-सहरा
फिर जोश-ए-जुनूँ सिलसिला-जुम्बाँ तो नहीं है