aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "तआला"
जलाल तमला
संपादक
सरगोशियों के दौरान एक-दो दफ़ा मैंने ख़ुद दख़ल देकर बकायमी होश-ओ-हवास अर्ज़ करना चाहा कि मैं बफ़ज़्ल-ए-तआला चाक़-ओ-चौबंद हूँ। सिर्फ़ पेचीदा दवाओं में मुब्तला हूँ। मगर वो इस मसले को क़ाबिल-ए-दस्त अंदाज़ी-ए-मरीज़ नहीं समझते और अपनी शहादत की उंगली होंटों पर रखकर मुझे ख़ामोश रहने का इशारा करते हैं। मेरे ऐलान सेहत और उनकी पुरज़ोर तरदीद से तीमारदारों को मेरी दिमाग़ी सेहत पर शुबहा होने लगता है। यूं भी अगर बुख़ार सौ डिग्री से ऊपर हो जाये तो मैं हिज़यान बकने लगता हूँ जिसे बेगम, इक़बाल-ए-गुनाह और रिश्तेदार वसीयत समझ कर डाँटते हैं और बच्चे डाँट समझ कर सहम जाते हैं। मैं अभी तक फ़ैसला नहीं कर सकता कि ये हज़रत मिज़ाजपुर्सी करने आते हैं या पुर्सा देने।
एक साहब ने बयान किया कि मेरी बीवी दो ही बरस के अन्दर दाग़-ए-मुफ़ारक़त दे गईं। ज़रा सा लड़का एक फूसड़ा अपनी निशानी छोड़ गईं। मेरी एक बड़ी साली थीं जो शायद इसी इिन्तज़ार में पहले ही से रँडापा खे रही थीं। ख़ुशदामन साहिबा कहने लगीं, मियां तुम्हारी साली मौजूद है अगर अक़्द कर लेते तो मुर्दा रिश्ता फिर ज़िन्दा हो जाता। मैंने भी सोचा कि अब वो जवान जहाँ न रही तो ये...
हज़ारों खूबियां ऐसी कि हर ख़ूबी पे दम निकलेमगर सबसे बड़ी ख़ूबी ये है कि फूहड़ से फूहड़ औरत किसी तरह भी पकाए यक़ीनन मज़ेदार पकेगा। आमलेट, नीम ब्रश्त, तला हुआ, ख़ागीना, हलवा।”
चौधरी मौजू ने जब उस बुज़ुर्ग का सरापा ग़ौर से देखा तो उसके दिल में फ़ौरन ही उसका एहतिराम पैदा हो गया। चारपाई पर से जल्दी जल्दी उठ कर वो उससे मुख़ातिब हुआ, “आप कहाँ से आए? कब आए?”बुज़ुर्ग की कतरी हुई शरई लबों में मुस्कुराहट पैदा हुई, “फ़क़ीर कहाँ से आएंगे। उनका कोई घर नहीं होता। उनके आने का कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं। उनके जाने का कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं। अल्लाह तबारक ताला ने जिधर हुक्म दिया चल पड़े... जहां ठहरने का हुक्म हुआ वहीं ठहर गए।”
लोग सर झुका कर इधर-उधर बिखरने लगे। मौला ने जल्दी से ताजे से पटका लेकर अदब से अपने घुटनों को छुपा लिया और सीढ़ियों पर से उतर गया। पीर साहब क़ुरआन मजीद को बग़ल में लिए उसके पास आए और बोले, अल्लाह-तआला तुम्हें सब्र दे और आज के इस नेक काम का अज्र दे। मौला आगे बढ़ गया। ताजा उसके साथ था और जब वो गली के मोड़ पर पहुँचे तो मौला ने पलट कर रंगे की चौपाल पर एक नज़र डाली।
तआ'लाتعالی
an epithet of Allah, God
मेरी मा'लूमात-ए-आ'म्मा महदूद हैं मगर क़ियास यही कहता है कि काफ़ी भी ज़मीन ही से उगती होगी क्योंकि उसका शुमार इन नेअ'मतों में नहीं जो अल्लाह-तआ'ला अपने नेक बंदों पर आसमान से बराह-ए-रास्त नाज़िल करता है। ताहम मेरी चश्म-ए-तख़य्युल को किसी तौर ये बावर नहीं आता कि काफ़ी बाग़ों की पैदावार हो सकती है और अगर किसी मुल्क के बाग़ों में ये चीज़ पैदा होती है तो अल्...
उसे उन तमाम छोकरियों का भी पता था जो इस धंदे में थीं। वो उनके जिस्म के हर ख़द्द-ओ-ख़ाल से वाक़िफ़ था। उनकी हर नब्ज़ से आश्ना था। कौन किस मिज़ाज की है और किस वक़्त और किस गाहक के लिए मौज़ूं है। उसको इसका बख़ूबी अंदाज़ा था। लेकिन एक सिर्फ़ उसको सिराज के मुतअ’ल्लिक़ अभी तक कोई अंदाज़ा नहीं हुआ था, वो उसकी गहराई तक नहीं पहुंच सका था।ढूंढ़ो कई बार मुझसे कह चुका था, “साली का मस्तक फिरे ला है.. समझ में नहीं आता मंटो साहब, कैसी छोकरी है... घड़ी में माशा घड़ी में तोला... कभी आग, कभी पानी। हंस रही है, क़हक़हे लगा रही है, लेकिन एक दम रोना शुरू कर देगी। साली की किसी से नहीं बनती... बड़ी झगड़ालू है। हर पसैंजर से लड़ती है। साली से कई बार कह चुका कि देख, अपना मस्तक ठीक कर, वर्ना जा जहां से आई है... अंग पर तेरे कोई कपड़ा नहीं... खाने को तेरे पास डेढ़ीया नहीं... मारा-मारी और धांदली से तो मेरी जान काम नहीं चलेगा, पर वो एक तुख़्म है, किसी की सुनती ही नहीं।”
आम लोगों की जहालत दूर करने के लिएहक़-तआ'ला ने बनाया है सबब उस्ताद का
अज़ीज़ अज़ जान, सआदत-ओ-इक़बाल निशान, बरखु़र्दार कामरान तूला-उरुहू, बाद दुआ और तमन्ना-ए-दीदार के ये वाज़ेह हो कि ये ज़माना ख़ैरियत तुम्हारी न मालूम होने की वजह से बहुत बेचैनी में गुज़रा। मैंने मुख़्तलिफ़ ज़राए से ख़ैरियत भेजने और ख़ैरियत मंगाने की कोशिश की मगर बेसूद। एक चिट्ठी लिख कर इब्राहीम के बेटे यूसुफ़ को भेजी और ताकीद की, कि उसे फ़ौरन कराची के पते पर भेजो और उधर से जो चिट्ठी आए मुझे ब वापसी-ए-डाक रवाना करो। तुम्हें पता होगा कि वो कुवैत में है और अच्छी कमाई कर रहा है। बस इसी में वो अपनी औक़ात को भूल गया और पलट कर लिखा ही नहीं कि चिट्ठी भेजी या नहीं भेजी, और उधर से जवाब आया या नहीं आया।
उसने अपनी गठड़ी से एक हज़ार एक मनकों वाली तस्बीह निकाल ली थी और अब बड़े इन्हिमाक से उस पर अल्लाह ताला के निनानवे नामों का विर्द करने में मशग़ूल थी।"आइशा बेटी।" अब्दुल-करीम ने अपनी बेटी को पुकारा।
“उस्ताद ये अपना आफ़ताब जो है ये उस लौंडिया पर अच्छा इम्प्रेशन डालने की फ़िक्र में ग़लताँ-ओ-पेचाँ है। अब ख़ुदा-वंद ताला ही इस पर रहम करे...”“बी. ए. के बा'द तुम क्या करोगी?”, एक रोज़ आफ़ताब राय ने कँवल से सवाल किया।
वजूद-ए-मर्ग की क़ाएल नहीं थी ज़िंदगी उस कीतआला अल्लाह अब देखे कोई पाइंदगी उस की
नाक़ों पे सवार, चुप साधे, साँस रोके, हम देर तक उस राह चलते रहे। हत्ता कि आगे-आगे चलते हुए अबू ताहिर ने अपने नाक़े की नकेल खींची और इतमीनान भरे लहजे में ऐलान किया, "हम निकल आए हैं।""निकल आए हैं।" हम तीनों ने ता'ज्जुब और बे-यक़ीनी से अबू ताहिर को देखा, "रफ़ीक़ क्या हम तेरे कहे पर एतबार करें।" और अबू ताहिर ने ए'तिमाद से जवाब दिया, "क़सम है उसकी जिसके क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में मेरी जान है, हम शह्र-ए-बे-वफ़ा से निकल आए हैं।" फिर भी हमने ताम्मुल किया, आँखें फाड़-फाड़ कर इर्द-गिर्द देखा, गर्दिश-ए-शम्स का पूरा जायज़ा लिया, कूफ़े के जाने पहचाने दर-ओ-दिवार वाक़ई नज़रों से ओझल थे, ये गर्दिश-ए-शम्स ही और थी, तब हमें याद आया कि हम निकल आए हैं, बस तुरंत अपने नाक़ों से उतरे और बे-इख़्तियार सजदे में गर पड़े और अपने पैदा करने वाले का शुक्र अदा किया, फिर राह के किनारे खजूरों के साए में बैठ कर अपने तोशे को खोला। एक-एक मुट्ठी सत्तू फाँके और ठंडा पानी पिया, उस साअत में ठंडा पानी हमें कितना ठंडा और मीठा लगा, लगता था कि हम प्यासों ने आज एक ज़माने के बाद पानी पिया है, ख़ुदा की क़सम उस आफ़त-ज़दा शह्र में तो ग़िज़ाएँ अपना ज़ायक़ा खो बैठी थीं और ठंडे मीठे कुँएँ यक-क़लम खारी हो गए थे या शायद हम बे-मज़ा हो गए थे कि अल्लाह तबारक-ओ-तआला की पैदा की हुई ने'अमतें हमारे लिए बे-लज़्ज़त हो गई थीं।
जब हम वहां पहुंचे तो बहुत से लोग एक मेले की सूरत में उनके मज़ार के बाहर मौजूद थे। घूम फिर रहे थे। हम मियां-बीवी काफ़ी मुश्किल से मज़ार के सेहन में दाख़िल हुए। बहुत से लोग वहां बैठे हुए थे और शाह अब्दुल लतीफ़ भटाई का कलाम सुना रहे थे। इस कलाम में जब शाह की शायरी में मौजूद एक ख़ास टुकड़ा आता तो सारे साज़िंदे चौकस हो कर बैठ जाते और गाने लगते। कलाम में ये ख़ास...
सिर्फ़ मौलवी क़ुदरतुल्लाह चुप-चाप खड़ा बाबा नूर को देखता रहा। “फिर वो बोला हंसो नहीं बच्चो। ऐसी बातों पर हंसा नहीं करते। अल्लाह-तआ’ला की ज़ात बेपर्वा है।”बच्चे ख़ामोश हो गए और जब मौलवी क़ुदरतुल्लाह चला गया, तो एक-बार फिर सब खिलखिला कर हंस पड़े। बाबा नूर ने मस्जिद की मेहराब के पास रुक कर जूता उतारा नंगे पाँव आगे बढ़ कर मेहराब पर दोनों हाथ रखे उसे होंटों से चूमा, फिर उसे बारी बारी दोनों आँखों से लगाया, उल्टे क़दमों वापस हो कर जूते पहने और जाने लगा।
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