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ख़्वाब और तक़दीर

इन्तिज़ार हुसैन

ख़्वाब और तक़दीर

इन्तिज़ार हुसैन

MORE BYइन्तिज़ार हुसैन

    स्टोरीलाइन

    हिंसा व अत्याचार से तंग आकर लोग पलायन व प्रवास का रास्ता अपनाने पर कैसे मजबूर हो जाते हैं, इस कहानी से ब-ख़ूबी अंदाज़ा लगाया जा सकता है। कहानी के पात्र क़त्ल व जंग से दुखी हो कर शहर कूफ़ा से मदीना प्रवास करने का इरादा करते हैं लेकिन ये सोच कर कूच नहीं करते कि कहीं मदीना भी कूफ़ा न बन जाए। अंततः शांति का शहर मक्का की तरफ़ कूच करते हैं रात भर सफ़र के बाद जब उनकी आँख खुलती है तो वो कूफ़ा में ही मौजूद होते हैं। प्रथम वाचक कहता है मक्का हमारा ख़्वाब है कूफ़ा हमारी तक़दीर।

    नाक़ों पे सवार, चुप साधे, साँस रोके, हम देर तक उस राह चलते रहे। हत्ता कि आगे-आगे चलते हुए अबू ताहिर ने अपने नाक़े की नकेल खींची और इतमीनान भरे लहजे में ऐलान किया, हम निकल आए हैं।

    निकल आए हैं। हम तीनों ने ता'ज्जुब और बे-यक़ीनी से अबू ताहिर को देखा, रफ़ीक़ क्या हम तेरे कहे पर एतबार करें। और अबू ताहिर ने ए'तिमाद से जवाब दिया, क़सम है उसकी जिसके क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में मेरी जान है, हम शह्र-ए-बे-वफ़ा से निकल आए हैं। फिर भी हमने ताम्मुल किया, आँखें फाड़-फाड़ कर इर्द-गिर्द देखा, गर्दिश-ए-शम्स का पूरा जायज़ा लिया, कूफ़े के जाने पहचाने दर-ओ-दिवार वाक़ई नज़रों से ओझल थे, ये गर्दिश-ए-शम्स ही और थी, तब हमें याद आया कि हम निकल आए हैं, बस तुरंत अपने नाक़ों से उतरे और बे-इख़्तियार सजदे में गर पड़े और अपने पैदा करने वाले का शुक्र अदा किया, फिर राह के किनारे खजूरों के साए में बैठ कर अपने तोशे को खोला। एक-एक मुट्ठी सत्तू फाँके और ठंडा पानी पिया, उस साअत में ठंडा पानी हमें कितना ठंडा और मीठा लगा, लगता था कि हम प्यासों ने आज एक ज़माने के बाद पानी पिया है, ख़ुदा की क़सम उस आफ़त-ज़दा शह्र में तो ग़िज़ाएँ अपना ज़ायक़ा खो बैठी थीं और ठंडे मीठे कुँएँ यक-क़लम खारी हो गए थे या शायद हम बे-मज़ा हो गए थे कि अल्लाह तबारक-ओ-तआला की पैदा की हुई ने'अमतें हमारे लिए बे-लज़्ज़त हो गई थीं।

    ये सब कुछ उस शख़्स के वारिद होने के बाद हुआ, वो शख़्स बाला क़द घोड़े पे सवार, सियाह अमामा पहने, मुँह पर ढाटा बाँधे, ढाल-तलवार ज़ेब-ए-कमर किए शह्र में दाख़िल हुआ, लोग समझे कि इमाम-ए-ज़माँ का वुरूद हुआ, गली-गली कूचा-कूचा ये ख़बर फैली, लोग मसरूर हुए, इमाम के तसव्वुर से मस्हूर हुए, मर्हबा कहते घरों से निकले और उसके गिर्द इकट्ठे हुए। किस शान से सवारी क़स्र-उल-इमारा की सम्त चली, लगता था कि पूरा शह्र उमड़ा हुआ है। क़स्र-उल-इमारा के ऊँचे दरवाज़े पर पहुँच कर उसने घोड़े की बाग खींची और मजमे की तरफ़ रुख़ किया, रुख़ करते-करते दफ़'अतन ढाटा खोला, ख़ूँख़ार सूरत, कफ़-ए-दुर्दहाँ, न्याम से शमशीर निकाली और कड़क कर कहा कि लोगो, तुम में से जो जानता है वो जानता है, जो नहीं जानता वो जान ले कि मैं गया हूँ, सब सन्नाटे में गए, वो भी जिन्होंने देखा और जाना कि कौन है जो गया है, वो भी जिन्होंने देखा मगर जाना कि कौन है जो गया है।

    उसने अपना ऐलान किया और क़स्र-उल-इमारा के अंदर चला गया, लोग देर तक साकित खड़े रहे, आख़िर को अबु अलमदार ने मुहर-ए-सुकूत तोड़ी, अफ़सोस भरे लहजे में बोला कि शह्र-ए-कूफ़ा पर ख़ुदा रहमत करे, इंतिज़ार इसने किसके लिए खींचा था और वारिद कौन हुआ?

    कौन है जो वारिद हुआ?

    लोगो, तुफ़ है तुम पर कि अभी तक तुमने नहीं पहचाना कि ये किस बाप का बेटा है, उस बाप का जिसका बाप नहीं था और जिसे लौंडी ने जना था।

    ज़ियाद का बेटा। बे-इख़्तियार किसी की ज़बान से निकला और एक दफ़ा फिर सब सन्नाटे में गए। उसके आने की ख़बर फैलती गई और कूचे और ख़याबाँ ख़ाली और ख़ामोश होते गए, में मंसूर बिन नोमान अल-हदीदी भरे कूचों से गुज़र कर क़स्र-उल-इमारा तक पहुँचा था और ख़ाली ख़याबानों और हक़ करते कूचों से गुज़र कर वापस घर पहुँचा और जब इस बे-आराम रात के बाद सुबह होने पर मैं घर से निकला तो देखा कि शह्र बदल चुका है। ख़ुदा की क़सम मैंने उस शह्र को भट्टी पे चढ़े कढ़ाओ की मिसाल उबलते देखा था, अब मैं उसे सीना-ए-अह्ल-ए-हवस की सूरत ठंडा देख रहा था, और मैं दिल में रोया कि शह्र किस शोर से सर उठाते हैं और कितनी सुरअ'त से ढे जाते हैं। मैं गिरफ़्ता दिल अपने रफ़ीक़-ए-देरीना मस'अब इब्न-ए-बशीर के पास पहुँचा, गुलू-गीर हो कर कहा, मस'अब तूने देखा कि कूफ़ा आन में कितना बदल गया है। मस'अब ने मुझे घूर के देखा और कहा कि मंसूर, ता'ज्जुब मत कर और आहिस्ता बोल।

    मैंने उसे ता'ज्जुब से देखा, रफ़ीक़ क्या तू वो नहीं है जो कल ऊँची आवाज़ से बोल रहा था। वो बोला, कल सबसे ऊँची आवाज़ में अबु-अलमदार बोला था और आज वो क़स्र-उल-इमारा की दिवार तले ठंडा पड़ा है। ये कह कि वो रफ़ीक़ मुझसे शताबी से रुख़सत हुआ और क़स्र-उल-इमारा की तरफ़ चला गया।

    तब मैंने जाना कि कूफ़ा वाक़ई बदल चुका है और वाक़ई मुझे आहिस्ता बोलना चाहिए, बल्कि नहीं बोलना चाहिए, क़ैस बिन मुसह्हर को मैंने देखा कि वो बोला और हमेशा के लिए चुप हो गया, इब्न-ए-ज़ियाद के आदमी उसे पकड़ कर क़स्र-उल-इमारा की छत पर ले गए, कहा कि बोल क्या बोलना है, उसने ऊँची आवाज़ में अपना ऐलान किया कि इस ख़ामोश शह्र में हर घर में उसकी आवाज़ सुनी गई, दूसरे ही लम्हे उसे छत से नीचे धकेल दिया गया, क़स्र-उल-इमारा की दिवार तले कितनी देर वो सिसकता रहा, देर बाद उसका दोस्त अब्दुल मोमिन बिन अमीर उस राह से गुज़रा और अपना ख़ंजर निकाल कर उसके गले पर फेर दिया। एक बूढ़े ने सरगोशी में उससे कहा कि तूने ख़ूब हक़-ए-दोस्ती अदा किया और उसने मुसकित जवाब दिया कि मैं अपने अज़ीज़ दोस्त को सिसकता हुआ नहीं देख सकता था।

    मैं ये नक़्शा देख वहाँ से फिरा और ख़याबाँ-ख़याबाँ परेशान फिरता फिरा, लग रहा था कि मैं कूफ़े में नहीं हूँ ख़ौफ़ के सहरा में भटक रहा हूँ। ख़ौफ़ के सहरा में भटकते-भटकते मेरी मुडभेड़ अबु ताहिर से हुई और अबु ताहिर ने मुझे जाफ़र रबीई और हारून इब्न-ए-सोहेल से मिलाया, कितने दिनों तक हम चारों गूँगे-बहरे बने उस ख़ौफ़ के सहरा में भटकते फिरे, आख़िर के तईं हमने सब्र का दामन हाथ से छोड़ा, सर जोड़ कर बैठे और सोचा कि किसी सूरत यहाँ से निकल चलिए, इस तजवीज़ पे जाफ़र रबीई रो पड़ा। बोला, मैं कूफ़े की मिट्टी हूँ, इस मिट्टी को कैसे छोड़ दूँ।

    हारून बिन सोहेल बोला, हर चंद कि मैं मदीने की मिट्टी हूँ मगर पालने वाले की क़सम इस क़रीने से मुफ़ारिक़त मुझे भी रुलाएगी कि मैंने अपनी जवानी के अय्याम इसी शह्र के कूचों में गुज़ारे हैं। तब अबु ताहिर ने कि हम में सबसे बड़ा था मेरी तरफ़ देखा, मंसूर तू इस बाब में क्या कहता है। मैंने अर्ज़ क्या कि रफ़ीक़ो, हुज़ूर की ये हदीस याद करो कि जब तुम्हारा शह्र तुम पे तंग हो जाए तो वहाँ से हिजरत कर जाओ। ये कलाम सुन सब रफ़ीक़ क़ाइल हो गए और निकल चलने की तैयारियाँ करने लगे। हमने शह्र निकलना कितना आसान जाना था मगर कितना मुश्किल निकला।

    शह्र के दरवाज़ों पर पहरा था, आने-जाने वालों पर रोक-टोक थी, कितनी मर्तबा हम दोनों दरवाज़ों तक गए और पहरेदारों को चौकन्ना देख कर चुपके से वापस चले आए। कूफ़ा हम पर तंग होता जा रहा था, तंग होते-होते वो चूहेदान की मिसाल बन गया, उसके अंदर हम ऐसे थे जैसे चूहेदान में चूहे... कि चक्कर काटें और निकलने पाएँ। निकलने की कोई सूरत देख कर हम जी जान से बेज़ार हुए, हारून इब्न-ए-सोहेल ने लंबी आह खींची और कहा, काश हमारी माएँ बाँझ हो जातीं और हमारे बापों के नुतफ़े ज़ाए हो जाते कि हम पैदा होते हमें ये सियाह दिन देखने पड़ते। जाफ़र रबीई रोया और बोला, वाय हो हम पर कि हम अपने ही क़र्ये में रंज-ए-असीरी खींचते हैं और वाय हो उस क़र्ये पर कि वो अपने बेटों के लिए सौतेली माँ बन गया।

    यास की इंतिहा पर पहुँच कर हम जरी बन गए, मरता क्या करता, बस कमर-ए-हिम्मत बाँध चल खड़े हुए कि हर चे बादा बाद, मा'लूम नहीं ये कैसे हुआ, पहरेदारों की आँखों पर पर्दे पड़ गए या नींद गई, ब-हर-हाल हम अब शह्र से बाहर थे और आज़ाद फ़िज़ा में साँस ले रहे थे। शाम के साए बढ़ते जा रहे थे और हवा गर्म से ठंडी होने लगी थी।

    हम नफ़सो! रात काली है और सफ़र लंबा है।

    अख़ी, क्या ये रात कूफ़े के दिनों से ज़्यादा सियाह है? ये दलील सबको क़ाइल कर गई, हम उस दम-ब-दम काली होती रात में सफ़र करने के लिए कमरें कस कर तैयार हो गए।

    मगर जाना कहाँ है? इस सवाल ने हमें चौंकाया, हम तो बस निकल खड़े हुए थे, ये तो सोचा ही नहीं था कि जाना कहाँ है। अबु ताहिर ने ताम्मुल किया, फिर कहा, मदीने और कहाँ। मैं और जाफ़र रबीई इस तजवीज़ के मोईद हुए, मगर हारून बिन सोहेल सोच में पड़ गया, दबे लहजे में बोला, अगर मदीना भी कूफ़ा बन चुका हो तो? हम सबने उसे बरहमी से देखा।

    रफ़ीक़। जाफ़र रबीई बोला, तू इस मुनव्वर शह्र के बारे में जब कि तू ख़ुद वहाँ की मिट्टी है ऐसा सोचता है। हारून बिन सोहेल रुका फिर बोला, हम-नफ़सो! बेशक इस शह्र-ए-मुबारक की ज़मीन, आसमान है, वहाँ की मिट्टी मुअंबर और पानी मुसफ़्फ़ा है मगर उस शह्र की सम्त से आने वालों से मिला हूँ। मैंने उन्हें परेशान पाया। इस पर हम चुप हो गए, किसी से कोई जवाब बन पड़ा, मगर हारून बिन सोहेल अभी चुप नहीं हुआ था, सोचते-सोचते बोला, हम-नफ़सो! मैं सोचता हूँ और हैरान होता हूँ कि नूर-ए-हक़ से मुनव्वर होने वाले शह्र कितनी जल्दी मुन्क़लिब हो गए, कितनी जल्दी उनके दिन परागंदा और रातें परेशान हो गईं।

    अबु ताहिर ने उसे बरहमी से देखा, सोहेल के ना-ख़लफ़ बेटे, तेरी माँ तेरे सोग में बैठे, क्या तू इस्लाम की हक़्क़ानियत से इंकार करेगा। हारून बिन सोहेल बोला, बुज़ुर्ग, मैं पनाह माँगता हूँ उस दिन से कि मैं ख़ुदा-ए-बुज़ुर्ग-ओ-बरतर की वहदानियत में शक करूँ और इस्लाम की हक़्क़ानियत से इंकार करूँ मगर ये कूफ़ा...

    अबु ताहिर ने ग़ुस्से से उसकी बात काटी, कूफ़ा क्या? क्या कहना चाहता है तू?

    हाँ यही मैं सोचता हूँ कि कूफ़ा क्या और क्यों? बार-बार इस ख़्याल को दफ़ा' करता हूँ और बार-बार ये ख़्याल मेरा दामन-गीर होता कि मुबारक क़र्यों के बीच कूफ़ा कैसे नमूदार हो गया, और कितनी जल्दी नमूदार हुआ, हज़रत को अभी ऐसा कौन-सा ज़माना गुज़र गया है। मैंने देखा कि अबु ताहिर के मिज़ाज की दरहमी बढ़ती जा रही है, मैंने बात बीच में काटी और कहा कि रफ़ीक़ो! मेरी तजवीज़ ये है कि उस शह्र चलें जिसे हक़ तआला ने शह्र-ए-अम्न क़रार दिया है, बेशक दुनिया ज़ालिमों से भर जाए और ज़मीन फ़साद से तह-ओ-बाला हो जाए मगर मक्का के मुबारक शह्र के अम्न में ख़लल नहीं आएगा। सब रफ़ीक़ों ने मेरी इस तजवीज़ पर साद किया और हम फ़ौरन ही नाक़ों पर सवार हो गए।

    तारीकी बहुत थी कि ये चाँद के शुरू की रातों में से एक रात थी, मगर हमारा जज़्बा हमें खींचे लिए जा रहा था, अब रात भीग चुकी थी और आसमान से उतरती ख़ुनकी ने हमारे दिलों में तरंग पैदा कर दी थी, शह्र-ए-अम्न के तसव्वुर में मगन और रिहाई के नशे से सरशार हम बढ़े चले जा रहे थे, नाक़े पर बैठे-बैठे मुझे ऊँघ गई। मैंने क्या हसीन ख़्वाब देखा कि मैं शह्र-ए-अम्न में नेक, पाक बुज़ुर्गों के बीच बैठा हूँ और कूफ़ा का हाल सुनाता हूँ। अचानक कान में एक आवाज़ आई, ये तो हम फिर वहीं गए। और मैंने हड़बड़ा कर आँखें खोलीं। अब तड़के का वक़्त था और सामने कूफ़े के दरो-ओ-दिवार नज़र रहे थे।

    ये तो हम फिर वहीं गए। जाफ़र रबीई कह रहा था। अबु ताहिर ने, हारून बिन सोहेल ने हैरत-ओ-दहशत से भरी नज़रों से उन दर-ओ-दीवार को देखा।

    मगर कैसे? मेरे मुँह से निकला। अबु ताहिर ने ताम्मुल किया, फिर कहा, रात बहुत काली थी, हमने राह पर ध्यान नहीं दिया, जिस रस्ते आए थे उसी रस्ते चल पड़े। हम सब चुप थे।

    अब क्या करें। जाफ़र रबीई ने सवाल किया। अबु ताहिर ने ताम्मुल किया और कहा, रफ़ीक़ो वापसी अब मुहाल है कि पहरे वालों ने हमें देख लिया है, शायद क़ुदरत को हमारा यहाँ से निकलना मंज़ूर नहीं। हारून बिन सोहेल ने ठंडा साँस भरा, दुरुस्त कहा, कूफ़ा हमारी तक़दीर है। और मैं मंसूर बिन नो'मान अल-हदीदी अफ़्सुर्दा हो कर बोला कि हाँ मक्का हमारा ख़्वाब है, तक़दीर हमारी कूफ़ा है।

    और हम थक हार कर वापस कूफ़े में गए।

    स्रोत:

    (Pg. 260)

      • प्रकाशक: एजुकेशनल बुक हाउस, अलीगढ़

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