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ग़ज़ल
मुझ को आना है तो वैसे भी चला आऊँगा
रहने दो राह में फूलों को बिछाते क्यों हो
फ़रमान ज़ियाई सिरोजनी
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शेर
होता है मुसाफ़िर को दो-राहे में तवक़्क़ुफ़
रह एक है उठ जाए जो शक दैर-ओ-हरम का
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
नज़्म
इसी दो-राहे पर
अब न उन ऊँचे मकानों में क़दम रखूँगा
मैं ने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी