aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "बदलती"
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैंतुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो
कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहनकोई तस्वीर गाती रही रात भर
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिएक़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए
तजस्सुस की राहें बदलती हुईदमा-दम निगाहें बदलती हुई
जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यूँ हैज़िंदगी रोज़ नए रंग बदलती क्यूँ है
उर्दू सिर्फ़ भाषा ही नहीं बल्कि भारतवर्ष की फैली हुई संस्कृति के मिठास का एक रंग है । कोई भी रचनाकार जिस ज़बान में लिखता है उस से उसका स्वाभाविक प्रेम होता है । इस प्रेम को वो अपनी लेखनी में उजागर करता है । उर्दू शायरों ने भी अपनी शायरी में उर्दू प्रेम का इज़हार किया है और इस भाषा की ख़ूबियों का वर्णन भी किया हैं । शायरों अपनी शायरी में ज़बान के सामाजिक और राजनितिक रिश्तों के बारे में लिखते हुये रिश्तों की बदलती सूरतों को भी विषय बनाया है । यहाँ उर्दू पर प्रस्तुत शायरी में आप इन बातों को महसूस करेंगे ।
ग़ज़ल का सफ़र बहुत पुराना है | इस सफ़र में ग़ज़ल का शिल्प वही रहा किन्तु उसके विषय बदलते गए | ग़ज़ल का इतने वक़्त तक बने रहने की एक वजह ये भी है कि इस शिल्प ने शायरों को काफ़ी आज़ादी दी, जिससे वे अपनी कल्पनाओं को ख़ूबसूरत रूप दे सके |
ज़िन्दगी की धूप-छाँव हमेशा एक सी नहीं रहती। वक़्त और हालात आ’म इन्सान के हों या आशिक़ और शायर के, इन्हें बदलते देर नहीं लगती ताक़त और इख़्तियार के लम्हे बेकसी और बेबसी के पलों में तब्दील होते हैं तो शायर की तड़प और दुख-दर्द लफ़ज़ों में ढल जाते हैं, ऐसे लफ़्ज़ जो दुखे दिलों की कहानी भी होते हैं और बेहतरीन शायरी भी। बेकसी शायरी का यह इन्तिख़ाब पेश हैः
बदलतीبدلتی
alter, exchange, transform
“ओई तो क्या मैं खा जाऊँगी कैसा तंग स्वेटर बुना है!” गर्म बनियान भी नहीं पहना तुमने मैं कुलबुलाने लगी। “कितनी पसलियाँ होती हैं?” उन्होंने बात बदली। “एक तरफ़ नौ और एक तरफ़ दस” मैंने स्कूल में याद की हुई हाई जीन की मदद ली। वो भी ऊटपटाँग।...
हमेशा देर कर देता हूँ मैंबदलते मौसमों की सैर में दिल को लगाना हो
हुस्न की रंगत बदलती जाएगीये शब-ए-महताब ढलती जाएगी
'वसीम' आओ इन आँखों को ग़ौर से देखोयही तो हैं जो मिरे फ़ैसले बदलती हैं
मैं अपनी तरफ़ मुतवज्जो हुआ, मैं उसकी मोहब्बत में गिरफ़्तार हो चुका था। इस एहसास ने मुझे सख़्त मुतहय्यर किया। मेरी उम्र उस वक़्त अठारह साल की थी। कॉलेज में अपने हमजमाअ’त तलबा की ज़बानी मैं मोहब्बत के मुतअ’ल्लिक़ बहुत कुछ सुन चुका था। इश्क़िया दास्तानें भी अक्सर मेरे ज़ेर...
और फिर दोनों में खुसर-फुसर हुई। बीच में एक नज़र दोनों कुबरा पर भी डाल लेतीं जो दालान में बैठी चावल फटक रही थी। वो इस काना-फूसी की ज़बान को अच्छी तरह समझती थी। उसी वक़्त बी अम्माँ ने कानों की चार माशा की लौंगें उतार कर मुँह-बोली बहन के...
और अलियासफ़ ने अलियाब को याद किया कि ख़ौफ़ से अपने अंदर सिमट कर वो बंदर बन गया था। तब उसने कहा कि मैं अंदर के ख़ौफ़ पर इसी तौर ग़लबा पाऊँगा जिस तौर मैंने बाहर के ख़ौफ़ पर ग़लबा पाया था और अलियासफ़ ने अंदर के ख़ौफ़ पर ग़लबा...
मौसम को बदलती हुई इक मौज-ए-हवा थीमायूस मैं 'बानी' अभी मंज़र से नहीं था
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