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नज़्म
वक़्त-ए-मुरव्वत
बिया बिया कि तिरा तंग दर कनार कुशेम
ज़े-बोसा-मेहर-कुनम बर-लब-ए-शकर-आलूद
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
कोई बात ऐसी अगर हुई कि तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो कि न याद हो
मोमिन ख़ाँ मोमिन
नज़्म
ज़िंदगी से डरते हो
आदमी तो तुम भी हो आदमी तो हम भी हैं
आदमी ज़बाँ भी है आदमी बयाँ भी है
नून मीम राशिद
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ग़ज़ल
अमीर ख़ुसरो
शेर
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही
सिराज औरंगाबादी
नज़्म
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
बरबत की सदा पर रो देना मुतरिब के बयाँ पर रो देना
एहसास को ग़म बुनियाद न कर
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ ओ लब की बख़िया-गरी
फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
वो सुब्ह कभी तो आएगी
जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी
वो सुब्ह हमीं से आएगी