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ग़ज़ल
यही मस्लक है मिरा, और यही मेरा मक़ाम
आज तक ख़्वाहिश-ए-मंसब से अलग बैठा हूँ
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
हम पे ही ख़त्म नहीं मस्लक-ए-शोरीदा-सरी
चाक-ए-दिल और भी हैं चाक-ए-क़बा और भी हैं
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
अपनी ग़ैरत बेच डालें अपना मस्लक छोड़ दें
रहनुमाओं में भी कुछ लोगों का ये मंशा तो है
साहिर लुधियानवी
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नज़्म
तीन आवाज़ें
अब्र आएगा ख़स-ओ-ख़ार के अम्बार लिए
मेरा मस्लक भी नया राह-ए-तरीक़त भी नई
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
अहल-ए-दिल और भी हैं
हम पे ही ख़त्म नहीं मस्लक-ए-शोरीदा-सिरी
चाक-दिल और भी हैं चाक-क़बा और भी हैं
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
नया मस्लक नया रंग-ए-सुख़न ईजाद करते हैं
उरूस-ए-शेर को हम क़ैद से आज़ाद करते हैं