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ग़ज़ल
फ़ना निज़ामी कानपुरी
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ग़ज़ल
समझा है अपने-आप से छुट कर सारा ज़माना देख लिया
देखना! अपने-आप में आ कर ये क्या क्या शरमाएगा
जमीलुद्दीन आली
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
वज़्अ में तुम हो नसारा तो तमद्दुन में हुनूद
ये मुसलमाँ हैं जिन्हें देख के शरमाएँ यहूद
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
बहुत बेबाक आँखों में त'अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
एक आरज़ू
हो हाथ का सिरहाना सब्ज़े का हो बिछौना
शरमाए जिस से जल्वत ख़ल्वत में वो अदा हो