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ग़ज़ल
दुनिया ग़रज़ की रह गई अब इस से क्या ग़रज़
चलिए कि लुत्फ़-ए-शिरकत-ए-महफ़िल नहीं रहा
सफ़ी औरंगाबादी
नज़्म
एक शाएरा की शादी पर
शिरकत-ए-ग़ैर से बेगाना थे नग़्मे तेरे
इस्मत-ए-हूर का अफ़्साना थे नग़्मे तेरे
अख़्तर शीरानी
नज़्म
वालिदा मरहूमा की याद में
तुख़्म जिस का तू हमारी किश्त-ए-जाँ में बो गई
शिरकत-ए-ग़म से वो उल्फ़त और मोहकम हो गई
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वही मैं हूँ वही मेरी कहानी है
मिरे जज़्बों के शाख़-ओ-बर्ग पर
बे-शिरकत-ए-ग़ैर यही मौसम है जिस की हुक्मरानी है
मोईन निज़ामी
ग़ज़ल
पुर्सिश-ए-ग़म के साथ थी शिरकत-ए-ग़म निगाह में
कितना मलाल ले गए कितना मलाल दे गए
अताउर्रहमान जमील
ग़ज़ल
कितनी कैफ़-आवर है इन की शिरकत-ए-ग़म भी 'उरूज'
मातम-ए-दिल की जगह जश्न-ए-दिल-ए-मरहूम है