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ग़ज़ल
मुल्कों मुल्कों शहरों शहरों जोगी बन कर घूमा कौन
क़र्या-ब-क़र्या सहरा-ब-सहरा ख़ाक ये किस ने फाँकी है
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
तन्हा जिए तो ख़ाक जिए लुत्फ़ क्या लिया
ऐ ख़िज़्र ये तो ज़िंदगी में ज़िंदगी नहीं
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
जब हो दम-ए-आख़िर तो बचा लेने की ताक़त
फिर ख़ाक-ए-शिफ़ा में न कहीं आब-ए-बक़ा में
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर चूर
इस वाक़िआ की ख़ाक है पत्थर को इत्तिलाअ
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
इस वाक़िआ' की ख़ाक है पत्थर को इत्तिलाअ'
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
उड़ाओ ख़ाक सरसर बन के या बाद-ए-सबा बन कर