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नज़्म
ज़ियारत
कुछ ऐसे हैं कि तीस इक साल होने आए हैं अब जिन की रहलत को
इधर कुछ सानेहे ताज़ा भी हैं हफ़्तों महीनों के
अब्दुल अहद साज़
शेर
ये सानेहे दिल-ए-ग़म-गीं हुआ ही करते हैं
न इश्क़ ही की ख़ता है न हुस्न ही का क़ुसूर