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ग़ज़ल
जौन एलिया
नज़्म
तुलू-ए-इस्लाम
तड़प सेहन-ए-चमन में आशियाँ में शाख़-सारों में
जुदा पारे से हो सकती नहीं तक़दीर-ए-सीमाबी
अल्लामा इक़बाल
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ग़ज़ल
जब किसी फूल पे ग़श होती हुई बुलबुल को
सेहन-ए-गुलज़ार में देखोगे तो याद आऊँगा
राजेन्द्र नाथ रहबर
हास्य
मैं टंगा रहा था मुंडेर पर कि कभी तो आएगा सेहन में
मैं था मुंतज़िर किसी और का मुझे घूरता कोई और है
ज़ियाउल हक़ क़ासमी
ग़ज़ल
खड़ा हूँ यूँ किसी ख़ाली क़िले के सेहन-ए-वीराँ में
कि जैसे मैं ज़मीनों में दफ़ीने देख लेता हूँ
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
मरसिए
सेहन-ए-गुलशन में कभी ऐ शह-ए-शमशाद-क़दाँ
फिर नज़र आए सलीक़ा तिरी रानाई का