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शेर
वतन की ख़ाक से मर कर भी हम को उन्स बाक़ी है
मज़ा दामान-ए-मादर का है इस मिट्टी के दामन में
चकबस्त बृज नारायण
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ग़ज़ल
दुश्मन-ए-अहल-ए-मुरव्वत है वो बेगाना-ए-उन्स
शक्ल परियों की है ख़ू भी नहीं इंसानों की
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
सूफ़ी ये सहव महव हुए सद्द-ए-बाब-ए-उंस
क्या इम्बिसात कार-गह-ए-हसत-ओ-बूद में
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
वतन की ख़ाक से मर कर भी हम को उन्स बाक़ी है
मज़ा दामान-ए-मादर का है इस मिट्टी के दामन में
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
फ़बेअय्ये आलाए रब्बिकमा तुकज़्ज़िबान
मालिक-ए-जिंन-ओ-इन्स की, इंसानों के हक़ में
कैसी बे-पायाँ रहमत है!
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
'वहशत' को रहा उन्स जो यूँ फ़न्न-ए-सुख़न से
ये शाख़-ए-हुनर फूलती-फलती ही रहेगी