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ग़ज़ल
हू-ब-हू मेरी तरह चुप-चाप मुझ को देखता है
इक लरज़ता ख़ूब-सूरत अक्स साग़र में अकेला
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
तुम्हारी यादें पत्थर बाज़ियाँ करती हैं सीने में
हमारे हाल भी अब हू-ब-हू कश्मीर वाले हैं
वरुन आनन्द
नज़्म
तुझे ख़ुद से अलग कैसे करूँ मैं
मिरी सूरत भी तुझ सी हू-ब-हू है
बहुत अर्से से ख़ुद में मैं हूँ ग़ाएब