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ग़ज़ल
हमारी हर नज़र तुझ से नई सौगंध खाती है
तो तेरी हर नज़र से हम नया पैमान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
निसार मैं तेरी गलियों के
यूँही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उन की रस्म नई है न अपनी रीत नई
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
इतना मालूम है!
बात करते हुए सौ बार वो भूला होगा
ये जो लड़की नई आई है कहीं वो तो नहीं