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ग़ज़ल
बढ़ती जाती है जो मश्क़-ए-सितम उस ज़ालिम की
कुछ मोहब्बत मिरी इस्लाह मगर देती है
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
हास्य
ये अक्सर शाइरों को बे-तरह इस्लाह देता है
और उस पर अपने साज़िंदों से खुल कर दाद लेता है
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
जो मुस्तक़बिल से पुर-उम्मीद हो वो शायर-ए-मुतलक़
'शुजा-ख़ावर' से अपनी फ़िक्र की इस्लाह करवा ले