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ग़ज़ल
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
कभी कभी
हयात ओ मौत के पुर-हौल ख़ारज़ारों से
न कोई जादा-ए-मंज़िल न रौशनी का सुराग़
साहिर लुधियानवी
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विषय
ग़रीब
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नज़्म
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
कहीं तो जा के रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़म दिल
जवाँ लहू की पुर-असरार शाह-राहों से
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
देता हूँ तुम को ख़ुश्की-ए-मिज़्गाँ की मैं दुआ
मतलब ये है कि दामन-ए-पुर-नम मिले तुम्हें