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ग़ज़ल
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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नज़्म
शिकवा
क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
रक़ीब से!
कारवाँ गुज़रे हैं जिन से उसी रानाई के
जिस की इन आँखों ने बे-सूद इबादत की है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
पीर-ए-गर्दूं ने कहा सुन के कहीं है कोई
बोले सय्यारे सर-ए-अर्श-ए-बरीं है कोई