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नज़्म
कर गए कूच कहाँ
जिन पे क़दग़न है वो अशआर पढ़ेगी ख़िल्क़त
और टूटे हुए दिल तुझ को सलामी देंगे
अहमद फ़राज़
नज़्म
मुझे सोचने दे
लेकिन इस दर्द-ओ-ग़म ओ जब्र की वुसअत को तो देख
ज़ुल्म की छाँव में दम तोड़ती ख़िल्क़त को तो देख
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
ख़िल्क़त-ए-शहर के हर ज़ुल्म के बा-वस्फ़ 'फ़राज़'
हाए वो हाथ कि अपने ही गरेबान में है
अहमद फ़राज़
नज़्म
काली दीवार
आस-पास तो जम्अ हुआ था ख़िल्क़त का अम्बोह
सब की आँखों में सन्नाटा चेहरों पर अंदोह
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया
ये ज़मीं बनती गई ये आसमाँ बनता गया