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नज़्म
ज़िंदगी से डरते हो
दौर ना-रसाई के ''बे-रिया'' ख़ुदाई के
फिर भी ये समझते हो हेच आरज़ू-मंदी
नून मीम राशिद
नज़्म
निसार मैं तेरी गलियों के
गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
वो करेंगे ना-ख़ुदाई तो लगेगी पार कश्ती
है 'नसीर' वर्ना मुश्किल, तिरा पार यूँ उतरना
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
ताक़-ए-अबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई
अब तो पूजेंगे उसी काफ़िर के बुत-ख़ाने को हम
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
तारिक़ की दुआ
जिन्हें तू ने बख़्शा है ज़ौक़-ए-ख़ुदाई
दो-नीम उन की ठोकर से सहरा ओ दरिया
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
आदमी-नामा
फ़िरऔन ने किया था जो दावा ख़ुदाई का
शद्दाद भी बहिश्त बना कर हुआ ख़ुदा
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
अज्ञात
नज़्म
मस्जिद-ए-क़ुर्तुबा
है मगर इस नक़्श में रंग-ए-सबात-ए-दवाम
जिस को किया हो किसी मर्द-ए-ख़ुदा ने तमाम
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
तख़्त क्या चीज़ है और लाल-ओ-जवाहर क्या हैं
इश्क़ वाले तो ख़ुदाई भी लुटा देते हैं