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ग़ज़ल
अख़लाक़ बन्दवी
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नज़्म
साँस ख़ुशबू से लदी जाती है
और इक तेरी कशिश से मिरे दिल दरिया में
हर-दम इक मद्द-ओ-जज़र रहता है
साइमा इसमा
ग़ज़ल
न तो बे-करानी-ए-दिल रही न तो मद्द-ओ-जज़्र-ए-तलब रहा
तिरे बाद बहर-ए-ख़याल में न ख़रोश उठा न ग़ज़ब रहा
अमीर हम्ज़ा साक़िब
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
बह्र-ए-तूफ़ान-ए-हवादिस में घिरे थे ऐसे
लब-ए-साहिल भी वही मद्द-ओ-जज़र याद आया