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नज़्म
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम
हैं फूलों की डाली पे बाँहें तुम्हारी
हैं ख़ामोश जादू निगाहें तुम्हारी
ताहिर फ़राज़
नज़्म
मता-ए-ग़ैर
ढूँडती रहती हैं तख़्ईल की बाँहें तुझ को
सर्द रातों की सुलगती हुई तन्हाई में
साहिर लुधियानवी
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नज़्म
लेकिन बड़ी देर हो चुकी थी
बाँहें थीं मगर विसाल-ए-सामाँ!
सिमटी हुई उस के बाज़ुओं में
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का
वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
कभी जादा-ए-तलब से जो फिरा हूँ दिल-शिकस्ता
तिरी आरज़ू ने हँस कर वहीं डाल दी हैं बाँहें
मजरूह सुल्तानपुरी
नज़्म
वजूद अपना मुझे दे दो
जिन्हें तुम शाख़ सी कहते हो वो बाँहें तुम्हारी हैं
कबूतर तोलते हैं पर तो परवाज़ें तुम्हारी हैं
उबैदुल्लाह अलीम
नज़्म
जुदाई की पहली रात
मेरी गर्दन में हमाइल तिरी बाँहें जो नहीं
किसी करवट भी मुझे चैन नहीं पड़ता है
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
गले में डाल कर बाँहें वो लब से लब मिला देना
फिर अपने हाथ से साग़र पिलाना याद आता है
निज़ाम रामपुरी
नज़्म
आख़िरी लम्हा
गले में डाल के बाँहें जो झूल जाओगी
मैं आसमान के तारे भी तोड़ लाऊँगा
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
वतन
तेरी ही गर्दन-ए-रंगीं में हैं बाँहें अपनी
तेरे ही इश्क़ में हैं सुब्ह की आहें अपनी