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उद्धरण
सआदत हसन मंटो
नज़्म
नौ-जवान ख़ातून से
सनानें खींच ली हैं सर-फिरे बाग़ी जवानों ने
तू सामान-ए-जराहत अब उठा लेती तो अच्छा था
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
मालिक से और मिट्टी से और माँ से बाग़ी शख़्स
दर्द के हर मीसाक़ से रु-गर्दानी करता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
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ग़ज़ल
ख़ुद तो बाग़ी हुए हम तुझ से मगर साथ ही साथ
दिल-ए-रुस्वा को तिरे ज़ेर-ए-नगीं रहने दिया
ज़फ़र इक़बाल
नज़्म
बाग़ी मुरीद
ہم کو تو ميسر نہيں مٹي کا ديا بھي
گھر پير کا بجلي کے چراغوں سے ہے روشن
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तुलू-ए-इश्तिराकियत
चौक चौक पर गली गली में सुर्ख़ फरेरे लहराते हैं
मज़लूमों के बाग़ी लश्कर सैल-सिफ़त उमडे आते हैं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
बाग़ी
राद हूँ बर्क़ हूँ बेचैन हूँ पारा हूँ मैं
ख़ुद-प्रुस्तार, ख़ुद-आगाह ख़ुद-आरा हूँ मैं
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
नई दुनिया
जहाँ जज़्बात अहल-ए-दिल के ठुकराए न जाते हों
जहाँ बाग़ी न कहता हो कोई ख़ुद्दार इंसाँ को
राजेन्द्र नाथ रहबर
ग़ज़ल
साँस लेता हूँ तो चुभती हैं बदन में हड्डियाँ
रूह भी शायद मिरी अब मुझ से बाग़ी हो गई