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ग़ज़ल
क्यूँकि निकले तेरा उस का दिल में पैकाँ छोड़ कर
जाए बैज़े को कहाँ ये मुर्ग़-ए-पर्रां छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
निकलती काश न बैज़े से अंदलीब अपने
हुई असीर-ए-क़फ़स भी तो आह याँ तन्हा
मिर्ज़ा मोहम्मद अली फ़िदवी
ग़ज़ल
जो निकली बैज़े से बुलबुल तो हुई असीर-ए-क़फ़स
न देखी खोल के आँख आशियान की सूरत
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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ग़ज़ल
गाह क़रीब-ए-शाह-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख़्वाब
उस की रफ़ाक़तों में रात हिज्र भी था विसाल भी
परवीन शाकिर
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
हाथ बे-ज़ोर हैं इल्हाद से दिल ख़ूगर हैं
उम्मती बाइस-ए-रुस्वाई-ए-पैग़म्बर हैं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तुलू-ए-इस्लाम
किताब-ए-मिल्लत-ए-बैज़ा की फिर शीराज़ा-बंदी है
ये शाख़-ए-हाशमी करने को है फिर बर्ग-ओ-बर पैदा