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नज़्म
मस्जिद-ए-क़ुर्तुबा
सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब तार-ए-हरीर-ए-दो-रंग
जिस से बनाती है ज़ात अपनी क़बा-ए-सिफ़ात
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मुफ़्लिसी
दरिया में उन के मुर्दे बहाती है मुफ़्लिसी
बीबी की नथ न लड़कों के हाथों कड़े रहे
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
जुगनू
ख़ुद अपने क़द से ब-जोश-ए-नुमू निकलता हुआ
फ़ुसून-ए-रूह बनाती रगों में चलता हुआ
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
रोटियाँ
नौकर नफ़र ग़ुलाम बनाती हैं रोटियाँ
रोटी का अब अज़ल से हमारा तो है ख़मीर
नज़ीर अकबराबादी
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नज़्म
यकसूई
ज़िंदगी शोला-ए-बे-बाक बना लो अपनी
ख़ुद को ख़ाकिस्तर-ए-ख़ामोश बनाती क्यूँ हो
साहिर लुधियानवी
शेर
लब-ए-नाज़ुक के बोसे लूँ तो मिस्सी मुँह बनाती है
कफ़-ए-पा को अगर चूमूँ तो मेहंदी रंग लाती है
आसी ग़ाज़ीपुरी
नज़्म
बिंत-ए-हव्वा
मैं ही पत्थर के मकानों को बनाती घर हूँ
मैं ही दुनिया-ए-मोहब्बत का हसीं मेहवर हूँ
हिना रिज़्वी
नज़्म
वो कैसी औरतें थीं
जो अपनी बेटियों को स्वेटर बुनना सिखाती थीं
सिलाई की मशीनों पर कड़े रोज़े बताती थीं