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नज़्म
क्या गुल-बदनी है
हर एक बुन-ए-मू से उबलती है जवानी
उठती है मसामात से यूँ भाप सी धानी
जोश मलीहाबादी
नज़्म
उबाल
अभी शोरबे के खदकने की आवाज़ छाई हुई थी
अभी साँप-छतरी लगाए हुए भाप नीले ख़लाओं की जानिब रवाँ है