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नज़्म
श्री-कृष्ण
द्वारका-धीश कहीं बन के मुकुट सर पे रखा
काली कमली रही जंगल में सर-ए-दोश कहीं
चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी
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शेर
अदाओं का कुछ इस अंदाज़ से पर्दा उठा देना
लजाना कसमसाना देख लेना मुस्कुरा देना
चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी
ग़ज़ल
बराबर बाँट देती है वो साँसें ख़ाक-ज़ादों में
न-जाने ज़िंदगी किस की दुकाँ से भान लेती है
औरंग ज़ेब
ग़ज़ल
ख़ुदा ने किस शहर अंदर हमन को लाए डाला है
न दिलबर है न साक़ी है न शीशा है न प्याला है
पंडित चंद्र भान बरहमन
ग़ज़ल
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
क्या हुस्न है यूसुफ़ भी ख़रीदार है तेरा
कहते हैं जिसे मिस्र वो बाज़ार है तेरा
चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी
नज़्म
नूर-जहाँ
हर जल्वा जहाँगीर था जिस वक़्त जवाँ थी
कहते हैं जिसे नूर-जहाँ नूर-ए-जहाँ थी