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ग़ज़ल
न इतना बुर्रिश-ए-तेग़-ए-जफ़ा पर नाज़ फ़रमाओ
मिरे दरिया-ए-बे-ताबी में है इक मौज-ए-ख़ूँ वो भी
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो अपनी बुर्रिश-ए-तेग़-ए-नज़र को देखते हैं
हम उन को देखते हैं और जिगर को देखते हैं
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
सुबूत-ए-मोहकमी-ए-जाँ थी जिस की बुर्रीश-नाज़
उसी की तेग़ से रिश्ता रग-ए-गुलू का भी हो
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
तेग़-ए-आहन से सिवा है बुरिश-ए-तेग़-ए-ज़बाँ
हक़ को बातिल से करेगी तिरी तक़रीर जुदा
इमाम बख़्श नासिख़
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ग़ज़ल
बुर्रिश-ए-तेग़-ए-अदा-ए-दोस्त का एहसास है
अब रहीन-ए-मिन्नत-ए-तीर-ए-क़ज़ा कोई नहीं
अब्बास अली ख़ान बेखुद
ग़ज़ल
चेहरे पे गर्द-ए-उम्र-ए-रवाँ का ज़ुहूर है
बाँहों के बाले बोसों की बारिश कहाँ है अब
अख़्तर शाहजहाँपुरी
ग़ज़ल
नाला-ए-नीम-शबी को है मिरी ये ताकीद
काट में बुर्रिश-ए-शमशीर से आगे बढ़ जा