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ग़ज़ल
तबीअ'त अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
कोई निस्बत भी अब तो ज़ात से बाहर नहीं मेरी
कोई बिस्तर नहीं मेरा कोई चादर नहीं मेरी
जौन एलिया
ग़ज़ल
रहा करते हैं क़ैद-ए-होश में ऐ वाए-नाकामी
वो दश्त-ए-ख़ुद-फ़रामोशी के चक्कर याद आते हैं
हसरत मोहानी
शेर
तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं