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नज़्म
निसार मैं तेरी गलियों के
चमक उठे हैं सलासिल तो हम ने जाना है
कि अब सहर तिरे रुख़ पर बिखर गई होगी
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
एक आरज़ू
गुल की कली चटक कर पैग़ाम दे किसी का
साग़र ज़रा सा गोया मुझ को जहाँ-नुमा हो
अल्लामा इक़बाल
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ग़ज़ल
कहीं चाँद राहों में खो गया कहीं चाँदनी भी भटक गई
मैं चराग़ वो भी बुझा हुआ मेरी रात कैसे चमक गई