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ग़ज़ल
शकील बदायूनी
शेर
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मुज़्तर ख़ैराबादी
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नज़्म
हसन कूज़ा-गर (3)
अगर मैं ज़िंदा हूँ तो कैसे आप से दग़ा करूँ?
कि तेरे जैसी औरतें, जहाँ-ज़ाद,
नून मीम राशिद
नज़्म
हिण्डोला
मैं पूछता हूँ ये तालीम है कि मक्कारी
करोड़ों ज़िंदगियों से ये बे-पनाह दग़ा
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
दोस्तों की कज-अदाई मैं भी लज़्ज़त है 'शकील'
दोस्त वो है दोस्त बन कर जो दग़ा देने लगे
शकील बदायूनी
नज़्म
औरत और नमक
इज़्ज़त हमारे गुज़ारे की बात है
इज़्ज़त के नेज़े से हमें दाग़ा जाता है
सारा शगुफ़्ता
ग़ज़ल
वो कोई दग़ा कोई मा'रका वो शुजाअतें और मुहासरा
वो कोई क़दीम रजज़ सुना ही गया न हो कहीं यूँ न हो
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
दिल ले के दग़ा देते हैं इक रोग लगा देते हैं
हँस-हँस के जला देते हैं ये हुस्न के परवाने को