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पुस्तकें 96
चित्र शायरी 34
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था वो क़त्ल कर के मुझे हर किसी से पूछते हैं ये काम किस ने किया है ये काम किस का था वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा मुक़ीम कौन हुआ है मक़ाम किस का था न पूछ-गछ थी किसी की वहाँ न आव-भगत तुम्हारी बज़्म में कल एहतिमाम किस का था तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़ कहो वो तज़्किरा-ए-ना-तमाम किस का था हमारे ख़त के तो पुर्ज़े किए पढ़ा भी नहीं सुना जो तू ने ब-दिल वो पयाम किस का था उठाई क्यूँ न क़यामत अदू के कूचे में लिहाज़ आप को वक़्त-ए-ख़िराम किस का था गुज़र गया वो ज़माना कहूँ तो किस से कहूँ ख़याल दिल को मिरे सुब्ह ओ शाम किस का था हमें तो हज़रत-ए-वाइज़ की ज़िद ने पिलवाई यहाँ इरादा-ए-शर्ब-ए-मुदाम किस का था अगरचे देखने वाले तिरे हज़ारों थे तबाह-हाल बहुत ज़ेर-ए-बाम किस का था वो कौन था कि तुम्हें जिस ने बेवफ़ा जाना ख़याल-ए-ख़ाम ये सौदा-ए-ख़ाम किस का था इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर जो लुत्फ़ आम वो करते ये नाम किस का था हर इक से कहते हैं क्या 'दाग़' बेवफ़ा निकला ये पूछे उन से कोई वो ग़ुलाम किस का था
लुत्फ़ वो इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है रंज भी ऐसे उठाए हैं कि जी जानता है जो ज़माने के सितम हैं वो ज़माना जाने तू ने दिल इतने सताए हैं कि जी जानता है तुम नहीं जानते अब तक ये तुम्हारे अंदाज़ वो मिरे दिल में समाए हैं कि जी जानता है इन्हीं क़दमों ने तुम्हारे इन्हीं क़दमों की क़सम ख़ाक में इतने मिलाए हैं कि जी जानता है दोस्ती में तिरी दर-पर्दा हमारे दुश्मन इस क़दर अपने पराए हैं कि जी जानता है
ना-रवा कहिए ना-सज़ा कहिए कहिए कहिए मुझे बुरा कहिए तुझ को बद-अहद ओ बेवफ़ा कहिए ऐसे झूटे को और क्या कहिए दर्द दिल का न कहिए या कहिए जब वो पूछे मिज़ाज क्या कहिए फिर न रुकिए जो मुद्दआ कहिए एक के बा'द दूसरा कहिए आप अब मेरा मुँह न खुलवाएँ ये न कहिए कि मुद्दआ कहिए वो मुझे क़त्ल कर के कहते हैं मानता ही न था ये क्या कहिए दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़ इस को हरगिज़ न बरमला कहिए तुझ को अच्छा कहा है किस किस ने कहने वालों को और क्या कहिए वो भी सुन लेंगे ये कभी न कभी हाल-ए-दिल सब से जा-ब-जा कहिए मुझ को कहिए बुरा न ग़ैर के साथ जो हो कहना जुदा जुदा कहिए इंतिहा इश्क़ की ख़ुदा जाने दम-ए-आख़िर को इब्तिदा कहिए मेरे मतलब से क्या ग़रज़ मतलब आप अपना तो मुद्दआ कहिए ऐसी कश्ती का डूबना अच्छा कि जो दुश्मन को नाख़ुदा कहिए सब्र फ़ुर्क़त में आ ही जाता है पर उसे देर-आश्ना कहिए आ गई आप को मसीहाई मरने वालों को मर्हबा कहिए आप का ख़ैर-ख़्वाह मेरे सिवा है कोई और दूसरा कहिए हाथ रख कर वो अपने कानों पर मुझ से कहते हैं माजरा कहिए होश जाते रहे रक़ीबों के 'दाग़' को और बा-वफ़ा कहिए