1863 - 1955 | दिल्ली, भारत
दाग़ देहलवी के शिष्य
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अदाएँ देखने बैठे हो क्या आईने में अपनी
दिया है जिस ने तुम जैसे को दिल उस का जिगर देखो
राह में बैठा हूँ मैं तुम संग-ए-रह समझो मुझे
आदमी बन जाऊँगा कुछ ठोकरें खाने के बाद
दिल मोहब्बत से भर गया 'बेख़ुद'
अब किसी पर फ़िदा नहीं होता
असरार-ए-बे-ख़ुद
इंतिख़ाब-ए-कलाम मअ हयात व ख़िदमात
1980
Dur-e-Shahwaar-e-Bekhud
1930
Guftar-e-Bekhud
1938
Miratul Ghalib
नंग-ओ-नामूस
1999
नया कलाम
दीवान-ए-गूफ़्तार-ए-बेख़ुद
जादू है या तिलिस्म तुम्हारी ज़बान में तुम झूट कह रहे थे मुझे ए'तिबार था
राह में बैठा हूँ मैं तुम संग-ए-रह समझो मुझे आदमी बन जाऊँगा कुछ ठोकरें खाने के बाद
दिल तो लेते हो मगर ये भी रहे याद तुम्हें जो हमारा न हुआ कब वो तुम्हारा होगा
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