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राघवेंद्र द्विवेदी

1980 | दिल्ली, भारत

राघवेंद्र द्विवेदी

ग़ज़ल 28

अशआर 72

इक तरीक़ा ये भी था फल बाँटते वो उम्र-भर

भाइयों ने पेड़ काटा और लकड़ी बाँट ली

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याद करने की वो शिद्दत खो गई जाने कहाँ

अब किसी को हिचकियाँ भी देर तक आती नहीं

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ज़िंदगी मिट्टी की सूरत चाक पर रक्खी हुई है

और हम बनते-बिगड़ते अपनी क़िस्मत देखते हैं

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जो समझते थे हमीं से रौशनी दुनिया में है

वक़्त ने बे-वक़्त उन को रख दिया है ताक़ पर

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माना कि मुझ में तह बहुत हैं और गहरा भी हूँ मैं

तुम ने भी तो मुझ को कभी खोला नहीं तरतीब से

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क़ितआ 10

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