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नअत1
दाग़ देहलवी के क़िस्से
आप शेर कहते नहीं, शेर जनते हैं
बशीर रामपुरी हज़रत-ए-दाग़ देहलवी से मुलाक़ात के लिए पहुंचे तो वो अपने मातहत से गुफ़्तगू भी कर रहे थे और अपने एक शागिर्द को अपनी नई ग़ज़ल के अशआ’र भी लिखवा रहे थे। बशीर साहब ने सुख़न गोई के इस तरीक़े पर ताज्जुब का इज़हार किया तो दाग़ साहब ने पूछा, “ख़ां साहब
दाग़ क्या कम है निशानी का यही याद रहे
एक बार दाग़ देहलवी अजमेर गए। जब वहाँ से रुख़्सत होने लगे तो उनके शागिर्द नवाब अब्दुल्लाह ख़ाँ मतलब ने कहा, “उस्ताद आप जा रहे हैं। जाते हुए अपनी कोई निशानी तो देते जाइए।” ये सुनकर दाग़ ने बिला ताम्मुल कहा, “दाग़ क्या कम है निशानी का यही याद रहे।”
मैं नमाज़ पढ़ रहा था, लाहौल तो नहीं
एक रोज़ दाग़ नमाज़ पढ़ रहे थे कि एक साहब उनसे मिलने आए और उन्हें नमाज़ में मशग़ूल देखकर लौट गए। उसी वक़्त दाग़ ने सलाम फेरा। मुलाज़िम ने कहा, “फ़ुलां साहब आए थे वापस चले गये।” फ़रमाने लगे, “दौड़ कर जा, अभी रास्ते में होंगे।” वो भागा-भागा गया और उन साहब को