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ग़ज़ल
शर्त-ए-दीवार-ओ-दर-ओ-बाम उठा दी है तो क्या
क़ैद फिर क़ैद है ज़ंजीर बढ़ा दी है तो क्या
अरशद अब्दुल हमीद
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नज़्म
मुलाक़ात
रात सन्नाटा दर-ओ-बाम के होंटों पे सुकूत
राहें चुप-चाप हैं पत्थर के बुतों की मानिंद
ज़ुबैर रिज़वी
ग़ज़ल
मैं समझता था दर-ओ-बाम कहाँ बोलते हैं
फिर तिरे बा'द खुला मुझ पे कि हाँ बोलते हैं