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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
हसन कूज़ा-गर (1)
थे हर काख़-ओ-कू और हर शहर-ओ-क़रिया की नाज़िश
थे जिन से अमीर ओ गदा के मसाकिन दरख़्शाँ
नून मीम राशिद
हास्य
आँखें वो फ़ित्ना-ए-दौराँ कि गुनहगार करें
गाल वो सुब्ह-ए-दरख़्शाँ कि मलक प्यार करें
अकबर इलाहाबादी
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नज़्म
किसान
धार पर जिस की चमन-परवर शगूफ़ों का निज़ाम
शाम-ए-ज़ेर-ए-अर्ज़ को सुब्ह-ए-दरख़्शाँ का पयाम
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
ये रू-ए-दरख़्शाँ ये ज़ुल्फ़ों के साए
ये हंगामा-ए-सुबह-ओ-शाम अल्लाह अल्लाह
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
शेर
तदबीर के दस्त-ए-रंगीं से तक़दीर दरख़्शाँ होती है
क़ुदरत भी मदद फ़रमाती है जब कोशिश-ए-इंसाँ होती है
हफ़ीज़ बनारसी
नज़्म
मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझ को
हरीम-ए-इश्क़ की शम-ए-दरख़्शाँ बुझ के रह जाए
मबादा अजनबी दुनिया की ज़ुल्मत घेर ले तुझ को
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
मैं हूँ वो क़तरा-ए-शबनम कि हो ख़ार-ए-बयाबाँ पर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अगर माज़ी मुनव्वर था कभी तो हम न थे हाज़िर
जो मुस्तक़बिल कभी होगा दरख़्शाँ हम नहीं होंगे
अब्दुल मजीद सालिक
नज़्म
नादारों की ईद
चर्बी मिल कर इंसानों की इक चेहरा दरख़्शाँ होता है
ये ईद के जल्वे बनते हैं जब ख़ून-ए-ग़रीबाँ होता है
नुशूर वाहिदी
नज़्म
सानेहा
अब संग-ओ-ख़िश्त ओ ख़ाक ओ ख़ज़फ़ सर-बुलंद हैं
ताज-ए-वतन का लाल-ए-दरख़्शाँ चला गया