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ग़ज़ल
कैसे दिल लगता हरम में दौर-ए-पैमाना न था
इस लिए फिर आए का'बे से कि मय-ख़ाना न था
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
क्या ग़म जो फ़लक से कोई उतरा न सर-ए-ख़ाक
जुज़ ख़ाक नहीं कोई यहाँ चारा-गर-ए-ख़ाक
मुज़फ्फर अली सय्यद
ग़ज़ल
हम को उस शोख़ ने कल दर तलक आने न दिया
दर-ओ-दीवार को भी हाल सुनाने न दिया
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
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ग़ज़ल
ऐसी आँखें तू ने दीं ऐ हुस्न-ए-जानाना मुझे
ज़र्रा ज़र्रा अब नज़र आता है बुत-ख़ाना मुझे